सोमवार, 29 नवंबर 2010

शायद ..

बीती रात कोई मर गया शायद
उजाला बस्ती में कफ़न का कर गया शायद ॥

मौत उसके पीछे न पड़ी थी
बेचारा जिन्दगी से डर गया शायद ॥

नुमाइश को यूँ तो एक जिस्म रखा था
वो भी सुबह तक सड गया शायद ॥

थक कर जिन्दगी के रेलम पेले में
सफ़ेद काफ्दो में सवंर गया शायद ॥

3 टिप्‍पणियां:

  1. ummid hai ane wale samay me aur bhi achhi kavitaayen padhne ko milengi aapke blog par

    dhnyavad aur shubhkamnaayen

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  2. सुन्दर मनोभावों की अभिव्यक्ति
    एक शेर याद आ गया आपकी इस रचना को पढ कर
    "चुल्हे नहीं जले या कि बस्ती ही जल गई
    बहुत दिनों से कोई भी उठता नहीं धुंआ"

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