मंगलवार, 28 सितंबर 2010

अश्लील है तुम्हारा पौरुष

पहले वे ..लम्बे चोगो पर सफ़ेद गोल टोपी ॥
पहने आये थे
और
मेरे चहरे पर तेजाब फेककर
मुझे बुर्के में बांध कर चले गए

संस्कृति के रखवाले बन कर आज फिर आये है ॥
एक हाथ में लोहे क़ि सलाखे
और दुसरे में हंटर लेकर

उन्हें शिकायत है ......
औरत होकर मैं
प्यार कैसे कर सकती हूँ ?
सपने कैसे देख सकती हूँ?
किसी को फूल कैसे दे सकती हूँ?

मैंने किसी को फूल दिया
---उन्होंने फूल जैसी मेरी देह दाग दी
मैंने उड़ने के सपने देखे
--उन्होंने मेरे सुनहरे पर तराश दिए
मैंने प्यार करने का दुस्साहस किया
--उन्होंने मुझे वैश्या बना दिया

वे ये सब करते रहे
और मैंने डरती रही , सहती रही ...
---अकेली हूँ न ?

कोई तो आये मेरे साथ
मैं इन हत्यारों को --
तालिब और मुहजिदो को
शिव और राम के सैनिको को
मुहब्बत का गुलाब देना चाहती हूँ॥
बताना चाहती हूँ इन्हें

" न मैं अश्लील हूँ , न मेरी देह ,
मेरी नग्नता भी अश्लील नहीं है ॥
व्ही तो तुम्हे जन्मती है ॥
अश्लील है तुम्हारा पौरुष
--औरत को सह नहीं पाता
अश्लील है तुम्हारी संस्कृति
पालती है तुम से विकृतियों को"

"अश्लील है वे सब रीतिया
जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद करती है
अश्लील है वे सब किताबे
जो औरत को गुलाम बनती है
और मर्द को मालिक
अश्लील है तुम्हारी ये दुनिया
इसमें प्यार वर्जित है
और सपने निषेद "

वे फिर फिर आते रहेंगे
--पोशाखे बदल कर
--हथियार बदल कर
करते रहेंगे मुझपर ज्यातती
पहले मुझे निवस्त्र करेंगे
और फिर
वस्त्र दान का पुण्य लूटेंगे

वे युगों से यही करते आये है
--फिर फिर यही करेंगे
जब जब मुझे अकेली पाएंगे ॥