रविवार, 20 दिसंबर 2009

मैं जिंदा हूँ लेकिन कहाँ ज़िन्दगी है....?


मैं बहुत दिनों से किसी खास चीज़ को लेकर काफ़ी परेशान थी ..और परेशानी इतनी बड गयी की उसका असर धीरे धीरे मेरे स्वास्थ पे पड़ने लगा ..उस पर हद तब हुई जब मैं ऑफिस जाते हुए बस में ही बेहोश हो गई .....जब डॉक्टर के पास पहुंची तो डॉक्टर ने अपना कर्त्तव्य निभाते हुए मुझे दवाई दी .....मुझे लगा मैं ठीक हूँ .....लेकिन कुछ दिन बाद फिर से मुझे कुछ तकलीफ महसूस हुई ..मैं फिर डॉक्टर के पास गयी तो मुझे चेक कर के डॉक्टर ने बताया की दिमाग में ओक्स्जिन की सप्प्लाई ठीक से नहीं हो पा रही है क्यूंकि मैं मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हूँ ! उन्होंने मुझे बहुत जादा कुछ नहीं बताया क्यूंकि मैं अकेली गयी थी ..... मैं स्वाभाव की बड़ी आतुर हूँ तो बस मैं बैठ गयी अपने नेट पे गूगल खोल कर जानकारी ढूंढने कि मैं कितनी बीमार हूँ ? जो खोजने निकली उसके बारे में तो खाली इतना पता लगा कि ओक्स्जिन कि बाधित सुप्प्लाइ जीवन भर के अंधे पन का कारण हो सकती है ...या फिर इन्सान अपना मानसिक संतुलन खो सकता है .....लेकिन तभी मुझे "अरुणा कि कहानी" पता लगी ...वो एक ऐसी स्त्री है जो आज से ३६ साल पहले ये पीड़ा झेल चुकी है इसलिए नहीं कि वो बीमार थी या फिर किसी परेशानी में थी ......वो इसलिए क्यूंकि उसे अपनी खूबसुरती और कर्त्तव्य निष्ठां कि कीमत चुकानी पड़ी ...अरुणा एक हॉस्पिटल में स्टाफ नर्स थी ..मन में बहुत बड़े बड़े सपने थे जिनकी उड़ान पे बैठ के वो विदेश जाना चाहती थी ....और इस लिए वो अपने काम वो पूरी निष्ठां और इमानदारी से करती थी ....पर उसे नहीं पता था उसकी मह्त्वकंषा एक दिन उसे जिंदा लाश कर देगी ...उसी के हॉस्पिटल में काम करने वाला एक सफाई कर्मचारी उस से खार खाता था क्यंकि वो चोरी चाकरी कामचोरी सब करता था और अरुणा फ्लोर इंचार्ज होने के नाते उसकी हरकतो को हॉस्पिटल प्रशाशन कि नज़रो में डालती रहती थी ...२४ साल कि खुबसूरत और मेहनती लड़की से एक डॉक्टर को मोहब्बत हो गयी .......और ये वो शाम थी जब अरुणा और उसके साथी ने अपनी प्रेम कि नइया को गृहस्त जीवन में उतारने कि खुश खबरी सारे स्टाफ के साथ बाटी ..और अरुणा अपने कपडे बदलने , ड्रेसइंग रूम में गयी और अभी ड्रेस चेंज ही कर रही थी कि वो सफाई कर्मचारी वहां पहुँच गया जो अपनी कामचोरी और गलत व्यव्हार के लिए हॉस्पिटल प्रशाशन से बहुत तिरस्कृत हो चूका था ....उसके हाथ में के कुते के गले में बाँधने वाली रस्सी थी ...उसने पहले अरुणा के साथ बलात्कार किया और बाद में उसे उस रस्सी से बांध दिया जिस से उसके दिमाग में ओक्स्जीन कि सुप्प्लाई रुक गई और वो हसती ,खेलती , ठिठोली करती जिंदगी को सही माँयने से परिभाषित करने वाली अरुणा जीवन भर के लिए न सिर्फ अपनी आँखों कि रौशनी खो बैठी बलिक अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठी....वो किसी कोम्मा में नहीं है ..वो जिंदा है ...शारीरिक रूप से एक ५५ साल कि स्त्री है पर उसका दिमाग ३ महीने के बच्चे कि तरह है ....उसे जिंदा रखने के लिए खैर इस तरह जिंदा रहने को मैं जिंदगी नहीं मानती , पर उसे जिंदा रखने के लिए उसके हाथ पैर बाँध के उसे खाना खिलाया जाता है .....समाज सेविका पिंकी वीरानी ने अरुणा कि पीड़ा को एक पुस्तक "अरुणा कि कहानी ......जिस देश में अरुणा रहती है" में शब्दों से सजा दिया है .....सुप्रीम कोर्ट में अरुणा के वकील के द्वारा अर्जी दी गई है कि " अगर अरुणा आत्म सम्मान कि जिन्दगी नहीं जी पाई तो कम से कम कानून उसे एक सम्मानित मौत दे कर उसे पल पल कि इस पीड़ा से मुक्त कर दे " .....ये तो बात थी अरुणा कि , मगर उस पापी का क्या ?जो इस जीवित मौत का जिम्मेवार है ....बहुत देर तक खोज बिन के बाद पता चला कि उसे ७ साल कि सजा हुइ थी वो भी चोरी के इलज़ाम में ........हॉस्पिटल ने अपनी शाख बचाने के लिए उसके दुष्कर्म को छुपा लिया और कोर्ट में बलात्कार का इलज़ाम साबित नहीं हुआ ......मैं सलाम करना चाहती हूँ सबसे पहले अपने देश के कानून का कि एक लड़की को लुटने के बाद भी अपनी पीड़ा कहने के लिए सबुत कि ज़रूरत पड़ती है ...और आज ३६ साल बाद भी अरुणा को मरने के लिए कोर्ट के फैसले का इंतज़ार है ...जबकि सविंधान में उम्र कैद भी सिर्फ १४ साल है ......फिर मेरा सलाम उस हॉस्पिटल को जिसकि शाख एक ज़िन्दगी से जादा ज़रूरी थी .....और अंत में मेरा सलाम हम सब को क्योंकि हम सब तो बिना किसी बलात्कार लुट चुके है और हम सबको लुटा है अरुणा और अरुणा जैसे ना जाने कितनी है पीड़ित लडकियों कि बेबसी , उनकी खामोश चीत्कारों ने ......अरुणा कि जिंदगी कि कीमत क्या है ? एक किताब? समाचार कि सनसनी खेस खबर? ७ साल सजा? या फिर रोज़ मौत कि गुज़ारिश ? ज़रा सोचिये सही मायने में मुर्दा और नगन कौन है? अरुणा या हम?

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