बुधवार, 26 जनवरी 2011
मन मेरा मौसम के जैसा
अब तक के आठ साल के सफ़र में ये पहली बार हुआ क़ि मुझे पता था ये सफ़र मेरा तुम्हारे साथ आखिरी सफ़र होगा ..मन में कोई उत्साह नहीं था बस एक उम्मीद थी , क़ि शायद कही किसी पत्थर में जान पड़ जाए और मुझे वो मिल जाए जो खो गया है...न्यू दिल्ली रेलवे स्टेशन , यूँ तो कई बार साथ जा चुके थे पर पहली बार एहसास हो रहा था यही वो जगह है जहाँ तुम्हे हमेशा के लिए अलविदा कहना होगा ..एक तरफ आँखों से सावन बरसता था और दूसरी तरफ मन में सब पहले जैसा हो जाने क़ि लालसा थी ..और तीसरी तरफ काम कर रहा था दिमाग , मस्तिस्क जो कह रहा था क़ि नहीं मैं अभी इतनी कमजोर नहीं हूँ क़ि उसके आगे झुक जाऊ जो मेरे स्नेह को भुला बैठा है , मेरे आठ साल के साथ को रुसवा कर चूका है ॥ पहली बार एक अनमना सफ़र शुरू हुआ तुम्हारे साथ ..दिल्ली से जम्मू और जम्मू से कटरा...रात भर ट्रेन में जगती रही में , नींद , भूख , प्यास सब कुछ जैसे कोई अपने साथ ले गया था ..उस दिन महसूस हो रहा था क़ि प्यार जैसे कोई चीज इस दुनिया में नहीं होती , क्यूंकि अगर होती तो में आठ सालो में तुम्हारे मन में कही तो घर कर पाती ... खैर जो करने आई थी वो तो करना ही था ..कटरा में एक रूम लिया , वहां नहाये और फिर दरबार क़ि यात्रा शुरू क़ि , मन में ख्याल आया क़ि काश ये सफ़र कभी न ख़तम हो ...पहली बार इतनी शिद्दत से कुछ माँगा इश्वर से ..झोली फैला के .हर सांस के साथ क़ि कुछ ऐसा हो जाये क़ि तुम फिर से मेरे हो जाओ , कोई करिश्मा , कोई चमत्कार , कोई कह दे के बस वो एक भयानक सपना था जो बीत गया ..और तुम आज भी मेरे हो ..पर सचाई तो कुछ और ही थी ..अब किसी ने न कुछ कहना था और न कुछ और सह पाने क़ि ताकत थी ..ये तो एक कर्ज था जो इश्वर से लिया था तुम्हे सलामत रखने को वाही तो उतारने गई थी मैं ..वो पल भी भयानक था जब तुम बीमार थे , बहुत मुश्किल वक़्त था वो जब डॉक्टर आके कह गया क़ि शाम तक हो सकता है तुम्हारा बी.टी करना पड़े ..लेकिन तब भी दिल में इतना दर्द नहीं था जितना आज है ..किसी तरह माता रानी के दर्शन हुए और हम लौट पड़े कटरा के लिए ..थकान से शरीर टूट चूका था पर मन सिर्फ मन्नतो में लगा था ..मुझे अब भी इंतज़ार था , उम्मीद थी कुछ हो जाने क़ि ...वापस रूम पर लौटे ..सोचा थोडा सो लेंगे तो थकान उतर जायेगी पर नींद आँखों का दामन छोड़ चुकी थी , बस बरस रही थी किसी को रोक लेने के लिए ..दोपहर में कुछ खाने और खरीदने मार्केट में आये ..यंत्रचालित सी मैं सब कर तो रही थी पर मेरे भीतर ही भीतर कुछ टूट रहा था ..और मन का कोई कोना अंधकार से भरा जा रहा था ..शाम को फिर जम्मू स्टेशन पहुंचे ..दिल्ली लौटने के लिए पर..पर क्या लौट रहा था मेरे अन्दर पता नहीं ...हम ट्रेन में बैठे और ट्रेन चल पड़ी ...२-३ घंटे क़ि नींद आई मुझे थकान से और फिर आँख खुल गई ..जैसे जैसे ट्रेन दिल्ली क़ि तरफ बढ़ रही थी..मुझे मन ही मन एक डर खाए जा रहा था ..तुम्हे खो देने का ..तुमसे दूर होने का ..मैं तुम्हे रोक लेना चाहती थी ..मन ही मन सोच रही थी ऐसा क्या कह दूँ तुम्हे क़ि तुम रुक जाओ ..पर मेरे यथार्थ का धरातल बहुत दुखदाई था ..तुम और किसी के साथ अपने जीवन क़ि डोर बांध आये थे ...और मेरे मन का प्रश्न ये था , क़ि तुम अपना जीवन किसके साथ बिताना चाहते हो ये यक़ीनन तुम्हारा ही निर्णय होना चाहिए पर तुम्हे मेरा जीवन तबाह कर देने का हक़ किसने दिया ..और जब जब तुम उसकी बात करते तो मुझे लगता जैसे कोई राक्षस मेरी आत्मा को रौंध कर , मेरे बदन को क्रूरता से भ्भोर कर अपने विजयी होने पर अट्टहास कर रहा हो ....देखते ही देखते दिल्ली आ गई और तुम्हारा साथ हमेशा के लिए छुट गया ....मेरा मन जो मौसम क़ि तरह पल पल नए नए रंगों में खिलता था ..हमेशा के लिए पतझड़ में उजड़ी उस शाख क़ि तरह हो गया जिस पर बसंत आने क़ि अब कोई आशा नहीं क्यूंकि ये शाख अपने पेड़ से अलग हो चुकी है ........(कल्पना)
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