सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
तुम्हे पाने को ..
मैं घर से निकल आई थी ।
तुम्हे पाने को,
मैंने धरम /जाति की हर दीवार गिराई थी।
तुम्हे पाने को ,
अपने पिता से आँख मिलायी थी -
भाई से जबान लड़ाई थी -
तुम्हे पाने को ॥
माँ ने बहुत बार समझाई हर बात मुझे ,
पिता ने भी दिया अपने वात्सल्य का वास्ता ,
मैंने मुड़कर नहीं देखा ......इतना विश्वास था तुमपर ॥
मैं अपना इतिहास जला आई ,
तुम्हे पाने को...
तुमने मुझे नया नाम दिया -
मैंने झुक कर स्वीकार किया,
तुमने मेरा स्पर्श किया -
मैंने आत्मीयता से अंगीकार किया ,
वेसे ये शब्द उतने ही निरर्थक थे ,
जितना मेरा जला हुआ अस्तित्व ॥
मैंने प्रतिकार नहीं किया था ,
तुम जैसे भी थे , जो भी थे -
बेशर्त मेरे प्रेमपात्र थे ...
मैं पवित्रता की हर शाख तोडती चली आई ,
तुम्हे पाने को ॥
हो गई सराबोर -तुम्हारे कपटी प्रेम की काली छाया में -
और सो गयी थी ,थक कर चकनाचूर
आँख खुली तो , तुम थे खड़े एक भीड़ में -
जो आई थी मुझ पर "हिजाब" के नाम पर
कफ़न डालने ॥
तुम्हारी आँखों में देखा मैंने झांक कर -
धरम/जाति की बड़ी ऊँची दीवार बना डाली थी तुमने ॥
बस एक ही रात में ???? कैसे संपन्न किया?
मैं तो तुम्हारे प्रेम की चादर में लिपटी ॥
तुम्हे अपना संरक्षक जान कर बेधड़क ही सोयी थी .....
तुम कब उठ कर चले गए ? दीवार बनाने ?
मैं देखती रह गयी -
तुमने मुझे जिंदा कब्र में गाड दिया-
एक बार फिर
सब कुछ जलाना होगा -
मुझे
खुद को पाने के लिए -
उम्र भर उठाना होगा तुम जैसे कायर से मोहब्बत करने की अकथित पीड़ा का भार मुझे ॥
खुद के किये को भुलाने के लिए ..
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... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
जवाब देंहटाएंग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
जवाब देंहटाएंthis is goog one, bahut achchha likha hai tumne. bahut achchha laga tumhari creativity dekhkar. keep it up dear. lagi raho
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