शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

जिंदगी ये सफ़र में है कट रहा है रास्ता

"दिल वालो की दिल्ली" अगर सुनिए , तो रात को बोलती है .....अपनी तन्हाई अपनी  ज़ुबानी  ..मैं संध्या , शाम ७:३० कन्हिया नगर मेट्रो स्टेशन , मेट्रो आने में अभी ५ मिनट बाकी थे सोचा जरा रेलिंग से नीचे देखू ...देखा तो सुनाई दी, दिल वालो की दिल्ली की खामोश तन्हाई ...यूँ तो उस दिन  छोटी दिवाली थी ...जी हाँ वही उत्सव जब हम इसलिए खुश होते थे क्यूंकि नए कपडे मिलेंगे ...स्कूल नहीं जाना होगा तीन चार दिन ....मम्मी पढाई के लिए नहीं डाटेंगी...पापा बहुत सारे पटाखे लायेंगे ..सब मिल कर सफाई करेंगे..मेले जायेंगे  ..फिर रंगबिरंगी लड़ी लगायेंगे ..दीप जलाएंगे , मोमबती जलाएंगे वो भी मेचिंग कर के लाल के बाद हरी , हरी के बाद पीली , पीली के बाद  नीली फिर सफ़ेद , लाल ,हरी ....पूजा करेंगे , और खूब सारी मिठाई फल मेवे मिलेंगे खाने को ..सबके घर जायेंगे मिठाई देने ..फिर पटाखे जलाएंगे और ये सिलसिला शुरू हो जाता था दिवाली के २-३ दिने पहले से , और २-३ दिन बाद तक चलता था ....पर आज देखिये छोटी दिवाली है , सारा शहर रौशनी से जगमगा रहा है ..पर दिलो में कोई उम्मीद नहीं बची है ....आजकल नए कपडे खरीदना कोई उत्साह का काम नहीं रहा ..प्रतियोगिता की दौड़ ने स्लेबस को इतना कठिन कर दिया की चार दिन की छुट्टी असंभव हो गई है ..रंगबिरंगी लड़ी ..दीये , मोमबती सब जलते है पर किसी नौकर के हाथो ..गृह लक्ष्मी खुद की पहचान बनाने की आरजू में खुद का अस्तित्व ही खो बैठी है ...लोगो के घर मिठाई और उपहार भी जायेंगे पर ये सोच समझ कर की किसने कितना और कैसा भेजा है ....मैं ओरो को क्या कहूँ मैं खुद कही काम से बाहर जाने को निकली हूँ रात ढले .....सचाई तो ये है की दिल वालो की दिल्ली में दिल है ही नहीं ...मेट्रो की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा भंग कर दी , और मैं फिर लौट आई अपनी मृत चेतना में जी हाँ चेतना तो है पर मर चुकी है ...उसकी आवाज़ सुन ने का समय नहीं है किसी के पास  ...सही बात है ..बीता समय नहीं लौटता...जिंदगी ये सफ़र में है कट रहा है रास्ता ......हमसफर तो है मगर मंजिले है जुदा जुदा .....

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