एक पेड़ मिलकर प्यार का हमने लगाया था कभी ....
आते जो फल तो ठीक था ,वो न फले तो न सही......
कुछ न हुए तो न सही ,कुछ न बने तो न सही ....
न मिले तो न सही , कुछ न रहे तो न सही .....ये जिंदगी ...
हर एक रास्ते से हमने पुकारा तुझे सोचा संवारा तुझे ....
पर तुमको अच्छा न लगा कोई वादा सचा न लगा ....
तुम रूठे हो ये सोच कर तुमको मनाएंगे मगर ॥
अब हमसे रूठी तेरी ये नज़र ..............................
गर न हँसे तो न सही , न बने तो न सही ....
न मिले तो न सही.....न रहे तो न सही .........
तुम रास्ता मैं अजनबी ,लगता था क्यों ये हर घड़ी ,
आधे अधूरे गीत की ,एक तुम कड़ी एक मैं कड़ी ...
तुम रास्ता मैं अजनबी , लगता था क्यो ये हर घड़ी ,
तुम्हे देख के लगता था ये, तुम हो बने मेरे वास्ते ...
मिलना ही था हमको मगर हम न मिले तो न सही ....
ये जिंदगी ..........
यह रचना स्वरचित नही ....स्वचोरित है.......पर हम सभी की जिंदगी मैं कही न कही किसी न किसी पड़ाव पे खरी उतरती है......बस फर्क इतना है की हम स्वयं से सच्चाई बोलने में झिझकते है......अगर आपको लगता है की जिंदगी सदेव आपके लिए खट्टे नीबू जैसी रही है तो उसका नीबू पानी बना कर उसके हर एक घूंट का मज़ा लीजिये और हो सके तो उसमे थोड़ा नमक और मिला ले ताकि जिंदगी को भी उसकी खट्टास का एहसास हो जाए ....."खट्टी हो तो नमक लगा के ....."
मंगलवार, 17 नवंबर 2009
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
संध्या ....
"मयखाने से शराब से साखी से जाम से अपनी तो जिंदगी शुरू होती है शाम से "......संध्या ....जो जैसे ही आती है, अपने सारे अरमानो को तारे बना कर सारे फलक मे बिखेर देती है ....और फ़िर बेचारी उषा को पुरी रात झाडू लगा लगा के आसमान साफ़ करना पड़ता है ताकि वो सूरज को फ़िर से आने के लिए मना सके ...या फ़िर यु कहूँ की संध्या अपने सारे पत्ते खोल देती इन तारो के रूप मे एक और बाजी हार जाने के लिए ....संध्या, जो हजारो करोडो वर्षो से तपते सूरज तक को अपने आगोश मे भर कर शीतलता से तृप्त कर देती है ....वही संध्या जाने किस प्रेम वश रात्रि से आलिंगन मे स्वयं का अस्तिव्य उसी रात मे विलीन कर देती है .....ये उसका प्रेम है ? या फ़िर कुदरत से किया उसका, कुदरत के कानून को न तोड़ने का वादा ? या वो जानती है या फ़िर उसका खुदा जानता है .....संध्या ...जो आपको आप से मिला देती है ....दिन भर की भागती जिंदगी मे भागते भागते थक जाने के बाद जब आप सब अपने अपने आशियाने की तरफ़ लौटेते है तो अनायास ही कही किसी बस स्टाप पे या फ़िर बस मे बैठे बैठे ही अचानक आप कही खो जाते हो .....अपने आप मे ही या फ़िर उसमे जो आपके सब से ज्यादा पास है ..सोचते है आप क्या है और क्या बनाना चाहते थे ? या फ़िर क्या बनाना चाहते है ?..सोचते है की काश आज उसकी सूरत देखने मिल जाए जो इस वक्त खुशबु की तरह आपके मन के महकाए हुए है.... और फ़िर आपकी मंजिल आ जाती है बस के झटके के साथ आप अपने स्वपन से जाग जाते है ....और जब तक आप घर पहुँचते है संध्या का आस्तित्व आपके सपने की तरह ही फीका पड़ चुका होता है ....पर ये संध्या कल फ़िर आएगी ..हर रोज़ आएगी जब तक दुनिया है तब तक .....और आपको जिंदगी का संदेश देने ....सदियों से ऐसे ही आती है.. रात मे लुप्त हो जाती है लेकिन फ़िर आती है , फ़िर आती है , फ़िर आती है .....और आपको कहती है " त्याग जीवन का आधार है ...पर तपते सूरज से समझौता जीवन और आस्तित्व दोनों के लिए प्रशन वाचक चिन्ह "......
सदस्यता लें
संदेश (Atom)