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किसी अजनबी को मेरा लिखा सुना रहा था वो ...
बिखरे हुए ख्वाबो के पुर्जे उड़ा रहा था वो ....
उमर भर पिसता रहा रिश्तो की चक्की मे,
बाकि बचे रिश्तो से दामन छूडा रहा था वो .......
अपनी जिद तो वो पूरी न कर सका ...
रूठे हुए बच्चो को मना रहा था वो ...
सेहरा में खिले फूलो को बचाने के लिए ....
अपने अश्को से उसकी प्यास बुझा रहा था वो ...
उसकी यादो को कुछ इस तरह से भुला रहा था वो ,
अपने हाथो अपना लिखा मिटा रहा था वो ....
सिर्फ किरदार ही तो बदले थे उसने वरना ..
अपनी ही कहानी सुना रहा था वो ......
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
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